शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

यत्र नार्यस्तु .........


जब बहुत छोटी थी , तब भी सुना था " यत्र नार्यस्तु पूज्यते , रमन्ते तत्र देवता "  ..  जैसे - जैसे पढने की अभिरुचि विकसित हुई और विद्यालय के पाठ्यक्रम में भी स्त्रियों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा .... कभी " अबला जीवन " की कहानी ,तो कभी " तोडती पत्थर " या फिर कभी " खूब लड़ी मर्दानी " तो अगले ही पल " नीर भरी दुःख की बदली "... जब शेक्सपियर को पढ़ा तो पता चला  "Frailty thy name is woman "......  अजीब सी उलझन जगाती ये पंक्तियाँ ... इनमें कहीं भी स्त्री अपने सहज रूप में ,एक संतुलित इंसान के रूप में नहीं दिखी .. 


बहुत पहले का समय देखें अथवा अब का अधिकतर हर स्तर पर अग्निपरीक्षा स्त्री की ही होती है .. आज भी अगर  सड़क  पर  किसी  स्त्री को  अपशब्द  सुनाये जाते हैं तब भी अधिकतर का ध्यान उस स्त्री को पीड़ा देते शब्दों पर और उस स्त्री पर ही होता है , उस समय एक भी निगाह उस शख्स को नहीं देखती जो ऐसे अपमान करते शब्दों का विष - वमन करता है .. स्त्री का पल्लू खींचा ये तो सब देखतें है पर उस पल्लू को खीचने वाले हाथों को रोकने का साहस नहीं करते हैं .. स्त्री के परिधान और चरित्र की शव विच्छेदन करने में जितना कम समय लगाते हैं ,उससे भी कम समय में तथाकथित वीरता का महिमामण्डन कर गुजरते हैं .. आमजन को कुछ भी सार्थक करने में होने वाला परिश्रम करना बेहद दुष्कर लगता है ,इसीलिए अपेक्षाकृत सरल काम कर देते हैं अपने मोबाइल से वीडियो बनाने का ....

अक्सर लगता है , कि हम किसी अघटित के घटने की प्रतीक्षा करते हैं .. जब कोई घटना समाचार - पत्र अथवा टेलीविज़न पर छा  जाती  है , तब उसपर अपना आक्रोश और प्रतिक्रियाएं देने की होड़ सी लगा देते हैं ,कि हम कितने सम्वेदनशील हैं .. कभी भी ये प्रयास क्यों नहीं करते कि ऐसी कोई घटना हो ही नहीं .. पीड़ा में अथवा ये कहूँ सम्भावित पीड़ा में अपना और अपने अपनों का चेहरा हम क्यों नहीं देख पाते .. 

बहुत सोचा ,पर इसका ठोस कारण ,जो लगभग हर परिस्थिति में मान्य हो ,नहीं खोज पायी .. अब लगता है कि अगर इसका समाधान पाना है तो हमको खुद अपनी क्षमता का आभास करवाना होगा .. अपनी क्षमता के आभास से मेरा तात्पर्य सिर्फ यही है कि उन अत्याचारी हाथों से हम स्त्रियाँ हर पल जुडी हैं .. उन हाथों को थाम कर पहला कदम रखना सिखानी वाली  माँ  एक स्त्री ही है .. उस  कलाई  पर रक्षासूत्र बाँधने वाली बहन भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों से लगा सिन्दूर अपने माथे पर धारण करने वाली भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों में अपना हाथ थमा कर कन्यादान करवाने का तथाकथित पुण्य दिलवाने वाली बेटी भी एक स्त्री ही है .. अगर ये सब स्त्रियाँ अपनी सामर्थ्य को पहचान कर ,उस हाथ को आततायी बनने ही न दें .. पहली गलती करते ही उन  हाथों को  थामने का और आवश्यकता पड़ने पर तोड़ देने का साहस करना ,स्त्रियों को सम्मान दिलवाने की दिशा में पहला और बहुत सार्थक कदम होगा .. सामान्यतया होता इसके विपरीत ही है .. अगर गुनाहगार हमारा अपना होता है ,तब समस्त सामर्थ्य लगा देते हैं अपने को निर्दोष और पीड़ित को दोषी साबित करवाने में ..

सिर्फ स्त्रियों पर इस का दायित्व डाल देना और पुरुषों को सर्वथा मुक्त कर देना ,तो ऐसा लगेगा कि हम सिर्फ सुरक्षा के उपाय खोजने में ही लगे हुए हैं , न कि  संकट  को समाप्त  करने में ..पुरुषों को भी याद रखना चाहिए कि उनको जन्म देने वाली एक स्त्री  ही  थी , उनकी मंगलकामना करती बहन भी स्त्री  है , हर परिस्थिति में उनका आत्मबल बढ़ाने वाली उनकी पत्नी भी स्त्री ही है , अपने नन्हे किलकते बोलो से घर आंगन भरने वाली बेटी भी स्त्री ही है .. स्त्री के इन सभी रूपों के प्रति वो अतिरिक्त रूप से सजग रहता है ... जब भी कभी भी स्त्री के प्रति कुछ भी उसकी अस्मिता के विरुद्ध होता दिखे ,तो उसको बस अपने जीवन को एक सुखद अनुभूति बनाने वाले इन सभी स्त्री रूपों  को याद कर उसका प्रतिकार अवश्य करना चाहिए .. समाज  को  अपना  परिवार मान कर दूसरी स्त्रियों की प्रतिष्ठा की सुरक्षा भी अपने परिवार की अन्य स्त्रियों की तरह करनी चाहिए .. किसी भी स्थिति में मानसिक दीवालियेपन का परिचय नहीं देना चाहिए .. स्त्री को एक व्यक्ति मानना ही इस समस्या का समाधान हैं .. किसी ऐसे अघटित के घटित होने पर मात्र दर्शक न बन कर ,एक दृढ प्रतिरोधक भी बनना चाहिए ...

ऐसी कोई भी घटना जब घटित होती है तो कुछ समय तक टेलिविज़न और हर तरह की चर्चाओं में प्रमुखता से छाई रहती है  कुछ समय बाद वो एक दृष्टांत भर बन के रह जाती है .. लगता है अगली की प्रतीक्षा रहती है और सब ये माने रहते हैं कि उनके परिवार के साथ तो किसी भी परिस्थिति में ऐसा नहीं होगा ,यद्यपि ऐसी कोई गारंटी नहीं होती ,तब भी .. उस अवांछनीय घटना के न घटित होने के कोई भी उपाय नहीं किये जाते हैं ...

इस समस्या का उपाय एकांगी हो कर नहीं पाया जा सकता .. स्त्री अथवा पुरुष ,ऐसा न सोच कर व्यक्ति बन कर सोचा जाए तभी व्यक्तित्व का भी विकास होगा और समाज का भी .. एक -दूसरे पर दोषारोपण किसी समस्या का समाधान नहीं है , क्योंकि पूर्ण रूप से कोई भी संतुलित नहीं है ...
                                                                                                                                                 -निवेदिता 
                                                                                                                                                                          

15 टिप्‍पणियां:

  1. दिखावा ना करके समुचित समाधान ढूढना होगा . चटकारे लेकर खबर दिखाने से समाज में क्रांति नहीं आती , सडक पर उतरना होगा.. सम्यक दृष्टि डाली है आपने. साधुवाद .

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  2. लेख काफी सोचने पर मजबूर करता है ,शुभ कामनाये manjul

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  3. सटीक बात निवेदिता जी.....
    जाने क्यूँ लिंगभेद से ऊपर उठ कर नारी को एक इंसान के रूप में क्यूँ नहीं देखा जाता...
    सबसे अधिक जो बात मुझे कचोटती है वो ये कि कोई बेटी सफल है...माँ बाप का सहारा है तो वे कहते हैं ये हमारी बेटी नहीं बेटा है....क्यूँ भाई...मुझे नामंज़ूर है बेटा होना...

    सस्नेह
    अनु

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    1. सहमत हूँ अनु आपसे ... मैं अपने स्त्री के किसी रूप को लेकर शर्मिन्दगी नही महसूस करती और न ही आक्रोशित होती हूँ ...... अपना तो फण्डा ही यही है मै जो हूँ वही रहूंगी , अगर कोई गलत समझता है तो ये उसकी गलती है मैं क्या कर सकती हूँ उसका .....सस्नेह !

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  4. जब मैं किसी नारी के सामने खड़ा होता हूँ तो ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर के सामने खड़ा हूँ. — एलेक्जेंडर स्मिथ
    नारी की उन्नति पर ही राष्ट्र की उन्नति निर्धारित है.

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  5. निवेदिता जी बहुत सार्थक और संपूर्ण लेख है
    आप की बात बिल्कुल सही है कि नारी को ही इस का उत्तरदायित्व संभालना होगा परंतु अक्सर इसके विपरीत ही होता है नारियाँ ही पीड़िता की व्यथा का कारण बन जाती हैं
    समाज में नारी और पुरुष का अपना अपना सम्मानित स्थान है और दोनों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये तभी एक स्वस्थ समाज बनता है
    एक सशक्त लेख के लिये बधाई

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    1. जी ,मै यही सोचती हूँ कि अगर हर व्यक्ति अपनी गरिमा का निर्वहन करे तो ऐसी समस्या कभी उपजे ही न .... सादर !

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  6. समाज में नारी का सम्मानित स्थान है यदि कोई भी नारी जाति का अपमान करता है तो,वह समाज देश इंसानियत का गुनहगार है,,,,,,

    RECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,

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  7. सार्थक लिखा है ... व्यक्ति बन के सोचना जरूरी है पर पुरुष प्रधान समाज इस मानसिकता को बदले तब ही ऐसा संभव है ... धीरे धीरे शायद कुछ बदलाव आए ...

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  8. वैचारिक आलेख .......एक दूजे का पूरक बनाना होगा .....

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  9. अघटित को रोकने के लिये स्वयं ही बहुत कुछ करते रहने की आवश्यकता है...सुदृढ़ भविष्य निर्माण करते रहने की।

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  10. ''दिगम्बर नासवा जी'' के विचारों से मैं बिलकुल सहमत हूँ,,,और ये मानसिकता हम पहले अपने-अपने घरों में ही बदल सकें तो क्या कहना....बढ़िया आलेख!

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