बुधवार, 30 नवंबर 2011

याद न जाये बीते दिनों की ........

           " यादें " इस रूप में ईश्वर ने हम सब को बहुत बड़ी दुआ दी है | अगर अपने जीवन से यादों को हटा दें तो सम्भवत: ज़िन्दगी जीने लायक रहेगी ही नहीं | वर्तमान सुखद भी हो सकता है और दुखद भी ,परन्तु जब वही वर्तमान व्यतीत हो कर अतीत बन जाता है और हमारी यादों में जा बसता है ,तब वो अनमोल हो जाता है | दुःख देने वाला वर्तमान यादों में अकसर उस घटना की पीड़ा भूल ,उन पलों से जुड़े अपनों को आसपास ला देता है | कभी जिन बातों अथवा घटनाओं की पीड़ा जीवन के अंत का दर्शन कराती लगती थी ,व्यतीत बन कर अपना बचपना दिखाती जीवन का सच बता जाती है |
           इन यादों का ही एहसान है कि हमारे जो अपने हमसे बिछड़ गये हैं ,उनको हम अब भी अपनी साँसों में पुनर्जीवित पाते हैं | जब भी दिल करे इन यादों की उँगली थामे उन के साथ जीये हुए पलों को पुन: जीवंत कर लेते हैं |याद कर के देखिये हाथों में पेन्सिल थमाते हुए माँ के स्नेहिल हाथ .... कभी किसी के टेढ़े बोलों के सामने बादल बन शीतल करती पिता की छवि ....... कभी किसी सवाल पर अटक जाने पर मदद को आये हुए बड़े भाई ....... हर एक अंक के लिए प्रतियोगी बन चुनौती देता अपना बहुत ही प्रिय मित्र ...... ! बेशक इनमें से कुछ समय के आगोश में समा गये हैं तो कुछ दुनिया की भूलभुलैय्या में खो गये हैं और कुछ अपने दायित्वों को वहन करने में व्यस्त ,पर सच में जब भी इनमें से किसी के बारे में सोचा जीवन जीने की लालसा पुन: बलवती हो जाती है | इनमें सबसे प्यारी यादें अपने बच्चों के बचपन की होती हैं | अपने अनाडीपन में उनकी जिन बातों से मन डर जाता था ,डगमगाते कदमों को देख उनके गिरने पर लगने वाली चोट का अंदेशा होने लगता था अब वो स्मित सी लहरा देती है |
         कैसी भी हों और किसी की भी हों ये ज़िन्दगी उन यादों की शुक्रगुजार है !

सोमवार, 28 नवंबर 2011

अनमोल ईश्वरीय छवि ........


                                इन अधरों पर खिली हँसी ,मेरे मन में बसती है
                               ये नयन बड़े ही प्यारे हैं ,इनमे बसे मेरे रंग सारे हैं

                               ये कदम जब भी लड़खड़ाये ,बाँहे खुद बढ़ आयी
                               पलकें राह बुहार आयीं ,जब रेत की आहट पायी

                               ख्यालों में भी जब - जब ,अंधियारे बादल छाये
                               मंगलदीप के जुगनू बना ,अमावस भी जगमगाई

                               बताओ क्या अब भी ,तुम यही मुझसे पूछोगे
                               मेरे मन की आहट पा ,कैसे सजाये ये चौबारे हैं

                              सच बोलूँ तुममें ही तो ,मेरी आत्मा बसती है
                              तुममें दिखती अनमोल ईश्वरीय छवि मनोहारी है !
                                                                                  -निवेदिता

शनिवार, 26 नवंबर 2011

"मोती के लाल "


अहा !
ये प्यारा पुनर्मिलन !
पलकों में छाई नमी ,
लबों पे खिलखिलाती
शबनमी यादें छायीं !
यूँ ही बस इक जरा सा
हाथ  बढ़ा तुम्हे थामा ,
सितारों सी टिमटिमाती
ओस की बूंदों सी पावन
फूलों से सुरभित दिन
अलमस्त अल्हड़ बातें !
विस्मृत करते सब अपने
वर्तमान ,मन मयूर सा
थिरक उठे ,जब किसी ने
छेड़ी पुरानी तान ......
अनायास गूँज जाने वाली
वो किसी की भी जयकार !
कभी बजरंगबली की जय
तो कभी बमबम ,लोटन ,
चीकू ,चौडू की पुकार .....
ज़रा सी निगाह फेरी देखा
गांधी ही नहीं बापू भी थे
वहीं सशरीर विराजमान !
गुंजन की गुनगुन में भी
टाइगर की पुकार थी
करते भी क्या थे तो ये सब
"मोती के  लाल "
इतनी ऊर्जा ,इतनी विशुद्ध
ऑक्सीजन कहीं और मिलना
दुर्लभ था ,इस धरा पर यूँ
अट्टहास साथ पलकों की नमी
और कहीं मिल पाना दुष्कर था !
                                   -निवेदिता          

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

बाल - शोषण का एक नया रूप ......


          
          कुछ दिनों पहले हम लोग इलाहाबाद गए थे | मित्रों के साथ कई स्थानों पर घूमने भी गये | हर स्थान का अपना अलग ही महत्व था ....... वो सब फिर कभी साझा करूंगी | आज तो संगम यात्रा के अनुभव बांटने आयी हूँ |
           विद्यालय प्रांगण ,छात्रावास ,मेस इत्यादि कई स्थानों पर विशुद्ध ऑक्सीजन पा लेने के बाद हम सब प्रतिष्ठान की ही बस में संगम पहुँचे | मैं नदी से बहुत डरती हूँ ,अत: नाव में संगम तक जाने से बचने के बहाने तलाशती इधर-उधर देख रही थी कि अचानक से बढ़ते कदमों को किसी ने थाम लिया | चौंक कर जब देखा तो एक छोटा सा बच्चा " भोलेबाबा शंकर " का रूप धरे हमें रोक कर खड़ा था | पहले तो उसकी मासूम सी शक्ल और हाव-भाव पर बहुत स्नेह आया | पलक झपकते ही उसने अपना छिपा व्यापारी रूप दिखाना शुरू कर दिया ............."फोटो खिचवाने का दस रुपिया लेगा " ..... तब तक ऐसे कई बच्चे वहां आ गये | उन बच्चों में कुछ उससे बड़े थे तो कुछ उससे छोटे भी थे ,जो अभी भोले बाबा बनना सीख रहे थे | उस पहले वाले बच्चे ने बाकी सब बच्चों को भगा दिया ...."मेरे गिराक हैं "  ! फिर उसने अपनी कलाकारी दिखानी शुरू की .... फोटो खींचने के पहले ही "दस रुपिया " की रट लगाने लगा | इस पूरे समय में उसका पिता ढ़ोलक ले कर उसके साथ ही था और बच्चे को निर्देश देता जा रहा था | जैसे हम सब आगे बढने को हुए , उस बच्चे के पिता ने कुछ इशारा सा उसको किया और वो बच्चा हमारे एक साथी के पैरों को पकड़ कर झूल गया और पैसों की मांग के साथ | किसी भी तरह जब वो छोड़ने को तैयार नहीं हुआ ,तब उन साथी ने पुलिस से पकड़वाने का डर दिखाया तब कहीं हम आगे बढ़ पाये !
              इस पूरे प्रसंग में बच्चा तो अपनी बालसुलभ चंचलता की वजह से आकर्षित करता रहा ,पर कहीं कुछ सोचने पर भी विवश भी कर गया | उसके पिता के प्रति आक्रोश भी बहुत हुआ ,जिसने अपने इतने छोटे से बच्चे को ऐसा करने पर विवश किया | उस छोटे से बच्चे का बचपना तो कहीं खो ही गया | वो एक ऐसे देवता का रूप धरे सबको अपना आशीष दे रहा था ,जिनका वो सही तरीके से नाम भी नहीं ले पा रहा था " भोये बाबा " कह रहा था ! बाल शोषण का ये एक अनूठा रूप देखने को मिला था | हम सब कुछ देर उस बच्चे को ही देखते रहे ..... बच्चा कुछ खा रहा था ,तभी कुछ लोग आ गये और उस बच्चे के पिता ने उसके हाथों से खाना ले कर फिर उसको दौड़ा दिया एक नये फोटो सेशन के लिए | एक बार फिर उसने अपनी हरकतें करनी शुरू कर दी थीं ,बस बीच-बीच में अपने छोड़े हुए खाने की तरफ निगाह डाल लेता था !हम सब बस हतप्रभ से उसको देखते ही रह गये |
             आज हम किसी राजनेता पर लगे थप्पड़ पर बहस कर रहे हैं ,अथवा सचिन के चिरप्रतीक्षित शतक की राह में हसरत से निगाहें बिछाए हुए हैं | ऐसे में कहीं एक छोटा सा लम्हा भी इन शोषित बच्चों की समस्या के समाधान के लिए हम क्यों नहीं दे पा रहे हैं ? घरों में तो हम बच्चों से काम न करवा कर बाल-श्रम से तो बच जाते हैं ,परन्तु देव-स्थलों पर देवता बन आशीष देते इन बच्चों के बचाने के लिए क्या किया जा सकता है इस पर मनन करने की आवश्यकता है ..........

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

उलझी गाँठ सी है ......


            
पता नहीं ये लम्हों की खुशी है 
या खुशनुमा लम्हे मंद स्मित 
बन किलकारियां बरसाते हैं 
ये पलकों तले छुपे अश्रु ही थे 
जो समय के साये परवान चढ़ते  
सुहानी भोर में ओस की बूंदों से 
मलयानिल के हिंडोलों पर झूमते  
सुरभित सुमनों के कपोलों पर 
जीवन ज्योति सा झिलमिला 
पूर्णिमा के चाँद सा जीवन में 
ज्वार-भाटा बन बस  भी जाते हैं 
भूलभूलैय्या सी अस्थियों के इस  
पिंजर में नन्हा सा दिल बन 
धड़कन बढ़ा चंद साँसे दे 
जीने का आसरा बसा जाते हैं 
दिल है तो कहीं कुछ दर्द भी है 
पंख हैं तो पंछी की उड़ान भी है 
कंधे हैं तो कभी अर्थी का भार है 
कभी पुष्प हार हैं ,तो कभी कहीं 
ज़िन्दगी की प्राणवान नसों को 
तोड़ती फंदों की उलझी गाँठ सी है......
                                -निवेदिता  


सोमवार, 7 नवंबर 2011

बहुरूपिया सी मनोवृत्ति ......

          
           हम सब अपने जीवन की पहली साँस से अंतिम साँस तक न जाने कितने रिश्तों को निभाते हैं | ये रिश्ते कभी-कभी अनदेखे भी होते हैं और अनजाने भी | अपनी हर आती-जाती साँसों में हम ये दावा भी करते हैं कि हमने अपना जीवन इन तथाकथित रिश्तों को समर्पित कर रखा है | कभी शांत मन से हम अपने इस दावे को परख कर देखें कि हम इन रिश्तों के प्रति कितने ईमानदार हैं ! अधिकतर यही पायेंगे कि जो रिश्ते हमारे जीवन का आधार हैं उन्हीं की अनदेखी भी हो जाती है | जो भी सम्बन्ध जितने दूर के हैं ,या यूँ कहें कि औपचारिक हैं उनके प्रति हम अधिकतर अतिरिक्त रूप से सतर्क रहते हैं | शायद इसके पीछे कारण यही होगा कि कुछ पलों को तो हम तलवार की धार पर चलने की सजगता रख सकते हैं ,हमेशा ऐसा नहीं कर सकते हैं | 
             इस तथ्य को मानते हुए भी कि मानव मन अपने निकट सम्बन्धों में तनावरहित शैथिल्य को जीना चाहता है ,हम अकसर एकपक्षीय क्यों हो जाते हैं | हम स्वयं तो तनावरहित रहना चाहते हैं ,परन्तु उसी व्यक्ति से हर पल की सजगता की अपेक्षा करते हैं | ये बहुरूपिया सी मनोवृत्ति जीवन जीने का सही तरीका तो हो नहीं सकती | 
              इस मनोवृत्ति का मूल कारण शायद यही हो सकता है कि हम अपने जीवन को जीने में नहीं अपितु किसी प्रकार बिता देने में विश्वास रखते हैं | जब से कुछ भी समझ पाने लायक होते हैं हमारे सामने एक "रिक्त स्थान भरो " जैसी जीवनशैली थमा दी जाती है और हम शेष जीवन उस निर्धारित लक्ष्य को पाने के प्रयास द्वारा उस "रिक्त स्थान " को भरने में बिता देते हैं | एक निश्चित परिपाटी के अनुसार पहले शिक्षा ,फिर कोई व्यसाय .उसके बाद विवाह और फिर पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते अपने जीवन के परम को पा जाने की अनुभूति करने लगते हैं | पर इस सब आपा-धापी में हम ज़िन्दगी का सम्मान करना भूल जाते हैं और जिन रिश्तों की वजह से ये सब सम्भव हो पाता है  उनकी ही अनदेखी कर जाते हैं | 
               हम जिस पल ये समझ जायेंगे कि जिन कि हम अनदेखी अथवा अवहेलना करते हैं ,शायद उन के साथ की वजह से ही जीवन ऐसा रूप ले पाया है | जिनको हम शून्य समझते हैं वही हमारे मूल्य में वृद्धि करते हैं | अगर ऐसा नही होता है तब इसके कारण हम खुद भी होते हैं क्योंकि हमने उस शून्य को उसका उचित स्थान नहीं दिया !
                 जीवन जीने का सही तरीका उसके हरएक पल को जी लेने में है |जो हमने पाया उसको भी और जो अनपाया रहा गया है उसको भी सकारात्मकता से स्वीकार करना चाहिए !

शनिवार, 5 नवंबर 2011

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ये कैसी मानसिकता 
ये कैसी आयी दुर्बलता 
अनिश्चित को सहेजा 
निश्चित नियति देख 
घबराया कंपकंपाया 
आती सांस तो कभी 
इक पल आते-आते 
रुक कर अटक-भटक 
थकती ही चली जानी है 
नाम की परवाह सब 
संजोते ,सांस के थमते 
नाम अनाम हो कैसा 
गुमनाम  कर जाता है
चिरपरिचित कहूँ या
मानूँ चिरप्रतीक्षित....
उस अनपेक्षित तिथि की
ये कैसी अपेक्षाओं की
सूली चढ चुकी उपेक्षा
रिश्तों के ताने-बाने का
चंदोवा ताने ये कैसी
पहचान अनजानी बनी !
                -निवेदिता 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

" शून्य "


        " शून्य " कितना छोटा सा शब्द ,पर इसका विस्तार इतना ज्यादा है कि सब कुछ इसमें समा जाता है और पता नहीं कहाँ खो जाता है | शून्य एक तरह से खालीपन की ,रिक्तता की स्थिति है | जब मन रिक्त रहता है तब सब कुछ हो कर भी नहीं हुआ सा प्रतीत होता है | इसके विपरीत मन पूर्णता अनुभव कर रहा हो ,तो कुछ न होते हुए भी अंत में भी अनंत सा हो जाता है | 
             खालीपन मन का हो या घर का ,विचित्र होता है | कभी इस रिक्तता से ही आत्म इतना सार्थक और परिपक्व हो कर सामने निकल  कर आता है कि कुछ अनोखा सृजन हो जाता है ................ अन्यथा इसका दूसरा पहलू इतना भयावह होता है कि सब ध्वस्त हो जाता है | शायद कमजोर करते ख़याल ऐसे शून्य में पहुंच चुकी मन:स्थिति में ही प्रभावी हो पाते हैं | 
              अकेला " शून्य " व्यर्थ होता है ,निष्क्रिय कर देता है | भिन्न परिस्थिति में किसी अन्य के साथ प्रभावी मित्र  बन उसमे गुणात्मक वृद्धि कर जाता है | इस " शून्य " को वस्तुत: शून्य मानने वाले अपनी महत्ता कम कर जाते हैं | 
           ये इकलौता " शून्य " हर पल ये एहसास दिलाता है कि हम किसी अन्य का सम्मान अथवा अपमान नहीं करते हैं ,अपितु अपना मान बनाये रखने का प्रयास ही करते हैं ,क्योंकि हमारे साथ से ही हमारा भी आकलन किया जाता है | अगर हमारे परिवेश में कहीं गरिमा अनुभव की जाती है इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम ने अपनी ज़िन्दगी में अपने " शून्य " को उसका उचित स्थान दिया है !