सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

मैं...?

मानती हूं मैं हूं बर्फ़ का एक टुकडा
उस बर्फ़ का जिस पर शव भी रखा जाता है
और इन्तज़ार में भी पिघलती जाती है
कोई आये और डाले सागर में उसे
मेरी तो पर्करिति है पिघलना
वो खुद की लाश पर पिघलूं
या किसी सागर में जा छलक जाऊं
मेरे लिये तो कोई अन्तर नहीं
मुझसे कोई सडन छुपाये या कडवाहट
या पाये मुझसे मन की शीतलता....

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